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आखिरकार राजनीतिक उहापोह की बीच हमारे देश के अभिन्न अंग उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागु कर दिया गया .बीते कई दिनों से वहां सियासी घमासान चला आ रहा था .28 मार्च तक हरीश रावत को बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया था .सदन में मतदान से ही बहुमत साबित हो सकता था ,जिसको साबित कर पाने में वे नाकाम रहे .उत्तराखंड वर्षों से अपनी बदहाली की कहानी ब्यान करता आया है .वहां बीते कई वर्षो से घोटालों का बोलबाला रहा है जिनके खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए गये हैं ,युवा रोजगार की आस में निराश व हताश होते जा रहे हैं ,जिस तरफ वहां के नेताओं व मंत्रीगणों का ध्यान आकृष्ट नहीं हो रहा है ,वे तो बस कुर्सी की चाहत में राजनैतिक समीकरणों को बनाने व बिगाड़ने में लगे हुए है .इस छोटे से राज्य की संवैधानिक व्यवस्था चरमरा सी गयी थी, जिसको सुधारने के लिए अंततः राष्ट्रपति शासन लागु करना ही पड़ा .
बीते दो महीनो में वहां ऐसा दूसरी बार हुआ .अगर गहराई से देखा जाये तो उत्तराखंड के विधानसभा में कुल 70 सीटें है ,जिसमे से 36 सीटों पर कांग्रेस ,28 सीटों पर बीजेपी ,2 में बसपा ,3 में निर्दलीय व बचे 1 में यूकेडी पार्टी का कब्ज़ा है .कांगेस के कुल 36 सीटों में से 9 को बागी करार दिया जा चूका है ,जिससे कांग्रेस संकट में पड़ गयी है .वहां का राजनीतिक माहौल काफी उलझ सा गया है .राष्ट्रपति शासन लागु होने के पश्चात् वहां के विधानसभा को निलंबित कर दिया गया है ,जो किसी भी मायने में राज्यहित में नहीं है .उत्तराखंड की गिनती हमेशा से ही समस्याग्रस्त राज्यों में होती आई है ,इस राज्य को अक्सर प्राकृतिक आपदाओं से दो चार होना पड़ता है ,उत्तराखंड के लोग वर्षों से विकास के लिए तरस रहे हैं .ऐसे में प्रमुख पार्टियों की स्वार्थी मानसिकता कही जनता के सपनों व अरमानों को डुबो न दे .राज्य की प्रमुख पार्टियों को आत्मविश्लेषण करते हुए राज्यहित में सोचने की दरकार है ,अन्यथा राज्य में और भी गंभीर किस्म के संकट उत्पन्न हो सकते हैं .राजनीति में संवैधानिक नियमों का काफी महत्व होता है ,अतः इन नियमों का पालन अत्यंत जरुरी है .
सिर्फ ऐसा नहीं है की उत्तराखंड ही राजनीतिक व अन्य संकटों से जूझ रहा है ,देश के अधिकाँश छोटे राज्यों के हालात प्रायः एक सी है .गोवा ,हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और ऐसे ही अन्य छोटे राज्यों में हरदम समस्याएं पनपती रहती है.छोटे राज्यों का गठन राज्य की बेहतरी ,उन्नति व खुशहाली के लिए होता है ,लेकिन कुर्सी के मद में चूर राज्य के वाशिंदे (नेता ) राजनीति को गन्दा खेल बना देते हैं और इसी खेल में विजय प्राप्ति की चाहत में राज्य के आम अवाम के समस्याओं को दरकिनार राजनीति की गन्दी परिभाषा गढ़ देते हैं .उत्तराखंड राज्य को गठित हुए 15 साल बीत गये ,पर अबतक न तो जनाकांक्षाओं के अनुरूप धरातल पर सरकारों की योजनायें व्यापक तौर पर दिखी हैं और न ही विकास ग्राफ में बढ़ोतरी .
वर्तमान समय में उत्तराखंड में खनन माफियाओं का बोलबाला सा हो गया है ,वे धीरे धीरे उत्तराखंड के ज़मीं को खोखला करते जा रहे हैं ,जिन पर कोई प्रभावी लगाम नहीं है ,इतना ही नहीं और भी तमाम तरह के परेशानियों ने उत्तराखंड में घर कर रखा है .इस राज्य की ये हालत राज्य के पूर्व नुमाइन्दों ( सरकारों ) व आला अधिकारियों की अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरीके से इमानदार न होने की बात को उजागर करती हैं .ऐसे बुरे हालात से उत्तराखंड को मुक्त कराने के लिए राज्य के विधि व्यवस्था में कई व्यापक बदलाव करने होंगे .सर्वप्रथम जो सबसे ज़रूरी है वो ये है की जितनी जल्दी हो सके विधानसभा को भंग करना होगा और राज्य में लगा राष्ट्रपति शासन ज्यादा दिनों तक रहना भी ,राज्य के लिए उचित नहीं है .
आदित्य शर्मा , दुमका
adityasharma.dmk@gmail.com
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