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a very emotional self created poem …read and give your opinion .
“इन सारी हुज्ज़तों से परे
एक शांत जहां अपना भी होगा
अभी तो ये दुनिया बेगानी सी लगती है
पर उम्मीद है, एक दिन इस धरती के साथ
ये अंतहीन आसमां भी अपना होगा …….
बात– बात पर लोग न जाने क्यों रूठने लगते हैं
छोटी छोटी मुसीबतों से हारकर टूटने लगते हैं
क्या खुदा पर से अब विश्वास हट गया है ?
या फिर हम खुद को पहचानना भूल गये हैं .
दिल रोता है तो क्या हुआ ??
सिने में छिपे दर्द के समंदर को छिपा तो लेता हूँ
लब्ज़ अब साथ नही देते हमारा, तो क्या हुआ ?
तो क्या हुआ ? ,कि हमारे नैन अब मुस्कुराना भूल गये हैं
उम्मीद है फिर भी वो दिन ज़रूर आएगा
जब खुशियों की बरसात होगी
आंसू तो अब भी निकलते है, तब भी निकलेंगें
बकायदा फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब आते है तो
सिने में बोझ डाल जाते हैं, जीने की उम्मीद तोड़ जाते हैं
पर तब आयेंगें तो , जीने की वजहें छोड़ जायेंगें ……..
कभी कभार सोंचता हूँ कि
आखिर इतनी अबूझ सी पहेली क्यों है ये ज़िन्दगी
जीना चाहता हूँ तो, रुख मोड़ लेती है
मरना चाहता हूँ तो, सौ तरह की चिंताएं जोड़ जाती है
बहुत अजीब सी एहसास देती है, ज़िन्दगी
कभी इस बुद्धू मन को उम्मीदों से भर देती है
तो कभी ह्रदय को छलनी छलनी कर देती है ….
अब तक तो इसको समझ पाने में नाकाम ही रहा हूँ
बहुत कोशिश की ज़िन्दगी के फितरतों से पार पाने की
पर लगता है किसी अनजान रास्ते में बढ़े जा रहा हूँ
बहरहाल उम्मीदों का सिलसिला चलता रहेगा
मंजिल मिले न मिले ,हौसला मिलता रहेगा …..
आदित्य शर्मा, दुमका
adityasharma.dmk@gmail.com
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