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“वो बचपन ही अच्छा भला था ,
कुछ मिले न मिले, कम से कम
हर किसी से प्यार का बौछार ज़रूर मिलता था
छल –कपट, इर्ष्या, द्वेष से पूरी तरह से अनभिज्ञ था
मस्तमौला होकर जीवन के हसीं रंगों में डूब जाया करता था
न कुछ पाने की तमन्ना थी, न कुछ खो जाने का डर था
कितना अच्छा था वो बचपन, कितना सुन्दर वो ज़माना था .
धीरे धीरे हम बड़े होते गये …..
थोड़े समझदार बन गये, हमने ये सीख लिया कि
मानवीय मूल्यों को दरकिनार कैसे किया जाता है
झूठ बोलकर, कुकर्म करके, मानवता को शर्मशार कैसे किया जाता है
हमने ये भी सीखा कि स्वार्थ ही सर्वोच्च होता है
बगैर इस गुण को अख्तियार किये जीवन में उन्नति करना असंभव है
अपनी समझदारी का बखान करते करते …
लगातार मेरी मन मस्तिष्क में, एक प्रश्न कौंधने लगता है
क्या सचमुच हम वक़्त के साथ समझदार बन गयें हैं
या यूँ कहें कि इससे भले तो हम नासमझ ही अच्छे थे
न तो स्वार्थ के गहरे समंदर में गोते लगाते थे
और न ही किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाते थे
वक़्त का दौर बदला, ये ज़माना बदल गया
बदलाव की खुमारी इस कदर चढ़ी हमपर
कि न लाज लिहाज रहा और न ही उस खुदा का डर
हमने मानवता की हर बेड़ियों को लाँघ दिया
अजीब सी मानसिकता से हम ग्रस्त हो गये
खुद ही बुराई के इस परिवेश को बोया
और खुद ही इसके कारगुजारियों से त्रस्त हो गये ….
अपना अपना करते करते, हम अपनों को भी भूल गए
सपने टूटे, अपने छूटे और जीने का मकसद तक बदल गया
अब तो सितम कुछ ऐसे हैं, कि भरी महफ़िल में भी
लोग खुद को तनहा सा महसूस करते हैं
ज़िन्दगी सबकी चल तो रही है, पर न जाने क्यों ?
आजकल हर कोई खुदा से रूठा हुआ सा लगता है
ग़मों के बजाय ख़ुशी का खज़ाना भी पसरा हुआ है जीवन में
बावजूद इसके हर कोई यहाँ टुटा हुआ सा लगता है ……. “
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