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हिंदी पत्रकारिता का बढ़ता दायरा …

aditya
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हिंदी पत्रकारिता का बढ़ता दायरा …

30 मई 1826 को शुरू हुआ हिंदी अखबार प्रकाशन आज समूचे भारतवर्ष में अपना एक अलग मुकाम स्थापित कर चूका है. युगल किशोर शुक्ल ने देश का पहला हिंदी अखबार उदण्ड मार्तण्ड की शुरुआत की थी. उस समय अंग्रेजी, फ़ारसी और बांगला के कई अखबार निकल रहे थे लेकिन यह हिंदी का पहला समाचार पत्र था. इसका शाब्दिक अर्थ होता है, “समाचार सूर्य” . यक़ीनन इस समाचार पत्र ने ऐसा करते हुए समाज के विरोधाभासों व अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता की आवाज़ बुलंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, लेकिन अफ़सोस एक साल के भीतर कई कारणों के चलते इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा, तब से लेकर हर वर्ष इस दिन हिंदी पत्रकारिता को लेकर बात होती है, विमर्श होता है चुनौतियों पर, जिम्मेदारियों पर.
हमारे मुल्क में इस वक़्त एक लाख से ज्यादा समाचार पत्र व पत्रिकाएं प्रकाशित होती है. पिछले 5-6 वर्षों में 150 से ज्यादा नए न्यूज़ चैनलों को स्वीकृति दी गयी है. यक़ीनन भारतीय मीडिया इंडस्ट्री तेजी से उभरता हुआ क्षेत्र है जहाँ मुनाफे की अपार संभावनाएं हैं. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश इन संभावनाओं को नए पंख प्रदान करता है. इन्हीं उम्मीदों के सहारे मीडिया के शैक्षणिक संसथान भी छोटे बड़े शहरों में अपने पाँव पसार चुके हैं. मानो सबकुछ बाजार आधारित ही है, हो भी क्यों न करोड़ो रुपयों की लागत से शुरू होने वाले टीवी चैनलों व अख़बारों का सालाना खर्चा भी करोड़ों में है, कोई घरफूंक तमाशा आखिर क्यों देखेगा? तो क्या वाकई मीडिया और बाकी कारोबारों में कोई ख़ास फर्क नहीं, तो क्या वाकई मीडिया का मतलब सिर्फ और सिर्फ मुनाफा है ? अगर हाँ तो फिर लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के तौर पर खुद को स्वस्थापित करने का क्या उद्देश्य है. ज़ाहिर है मीडिया की काफी व्यापक जिम्मेदारियां है जो निति निर्माताओं की गंभीरता को परखता है. भ्रष्टाचार उजागर कर शासन-प्रशासन पर दबाव बनाता है. लोकतंत्र के बाकी स्तंभों की समाज के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने का प्रयास करता है. इस लिहाज़ से कहें तो भारतीय मीडिया करोड़ों भारतियों के सरोकारों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन बदलते वक़्त में एक बड़ा तबका मानने लगा है कि भारतीय मीडिया अपनी जिम्मेदारियों के साथ न्याय नहीं कर पा रहा है, ख़बरें उसकी गंभीरता नहीं बल्कि टीआरपी के आधार पर चुनी जाती है. सोशल मीडिया के हिसाब से कहें तो फिक्स के लिहाज से भूत-प्रेत, स्वर्ग-नरक, फिक्सिंग- अपराध और आतंक से जुड़ी ढेरों ख़बरों के बीच ऐसे ज़रूरी मुद्दे कहीं गौण है जो इस देश के लिए ज्यादा ज़रूरी है. मानो बस किसान की खुदखुशी ही टीवी कैमरों का ध्यान कभी खीच पाती है. मुल्क के करोड़ो लोग बिजली, सड़क, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा की बेहतर सुविधाओं से कोसों दूर है. क़र्ज़ को लेकर महंगा इलाज कराने वाले आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे ज़ीने को मजबूर है. केवल गन्दा पानी पीने के कारण लाखों मौतें होती है. देश का किसान खेती छोड़ने को मजबूर होता रहा है. लेकिन अफ़सोस ऐसे मुद्दे प्राइम टाइम संवाद या पहले पृष्ठ का हिस्सा कम ही बन पाते हैं.
हमारी कथित राष्ट्रीय मीडिया लव- ज़ेहाद, विवादित बयान, आरक्षण, दंगे और राजनीतक तू-तू, मैं-मैं छापने में ही खुश है, दिखाने में तो और भी ज्यादा. देश और जनसरोकार को आगे रखने वाले मीडिया समूहों की अधिकाँश ख़बरें राजधानी और राजनीति तक ही सिमित है ऐसे में सवाल टीवी चैनलों पर कई ज्यादा खड़े होते हैं. देश के लगभग हर खबरिया चैनलों में दिन की शुरुआत राशिफल और बाबाओं के ज्ञान से होती है. अंधविश्वासों पर घंटो बहसें होती है. गंभीर पत्रकारिता का हुंकार भरने वाली खबरिया चैनलों में दिनभर संसद के हंगामें को प्रमुखता दी जाती है. देश में पढने- लिखने वाले सांसद ही शुर्खियाँ नहीं बटोर पाते. दूसरी तरफ मीडिया का एक ऐसा पहलू भी है जिसकी चर्चा कभी कभार होती है, वो है मीडिया कर्मियों के सामने आने वाली चुनौतियां. चाहे बात उत्तर प्रदेश के पत्रकार देवेन्द्र सिंह के मौत की हो, या बिहार के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की . साफ है कि खबर देने वाले खुद खतरे में है. “शूट द मेसेंजर” हमेशा हावी रही है. इस घटना से ये भी साफ होता है कि लोकतंत्र के अन्य प्रतीक ही इस चौथे स्तम्भ के दुश्मन है. मीडिया कर्मियों की सुरक्षा इस देश में बड़ी चुनौती है, उस सबसे बड़े लोकतंत्र में जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी, और सवाल पूछना कानूनन हक़ है. सत्ता की सुविधानुसार पत्रकार की हत्या को आत्महत्या बना दी जाती है और मृतक पत्रकार ब्लैकमेलर. इन सब के बीच भारतीय प्रेस परिषद् के पूर्व के अनुभवों को देखकर मानो उसकी शक्तियां भी रस्म-अदायगी ही लगती है. सवाल उठते हैं की लोकतंत्र के रक्षक की सामाजिक असुरक्षा का देश में कुछ मायने रखती भी है या नहीं. पत्रकार कल्याण कोष के तहत साल 2001 से 2010 तक देशभर में केवल 17 पत्रकारों के परिजनों को ही मदद मिल सकी, उस वक़्त ये रकम केवल एक लाख थी, समझना होगा कि अधिकांश सरकारी सुविधाएं केवल दिल्ली जैसे मुख्यालयों में बैठे चुनिन्दा मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए है न कस्बे, गावों में रोज संघर्ष करने वाले संवाददाताओं के लिए. सांसद इतने व्यावहारिक नहीं कि हर . इस बीच सवाल साख का भी है. साल 2014 में पेड न्यूज़ की 1400 शिकायतें सामने आई, कारवाई कितनों पर हुई नहीं पता. आये दिन ख़बरों में मीडिया की खेमेबंदी और राजनितिक निष्ठा झलकती दिखती है. कुल मिलाकर भारतीय मीडिया खासकर हिंदी पत्रकारिता के सामने अनेक तरीके की चुनौतिया हैं जिनसे पार पाना बेहद ज़रूरी है, अन्यथा देश कालोकतंत्र खतरे में पड़ सकताहै

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