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आर्थिक असंतुलन : भेदभाव की जड़ ( contest )

aditya
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बदलते परिवेश में हर पुरानी चीज का रूपांतरण हो रहा है , जो कई मायने में जरूरी भी है । बगैर परिवर्तन के प्रकृति संतुलित नहीं रह सकती है। लेकिन सिर्फ भौतिक परिवर्तन पर्याप्त नहीं है । लोगों के अवचेतन मन में जड़ कर चुकी पुरानी मान्यताओं व खोखली अवधारणाओं को उखाड़ फेंकना ज्यादा जरूरी है ।

जागरण जंक्शन के इस उत्कृष्ट प्रयास के लिए धन्यवाद ज्ञापन व बधाई के साथ किस्सागोई के इस सिलसिले को अपने अनुभव से जोड़ता हूँ । कहानी अगर सिलसिलेवार तरीके से परोसी जाये तो बेहतर है ।

तब मैं बहुत छोटा था , इतना कि सांसारिक रीतियों- नीतियों से पूरी तरह अनभिज्ञ, जीवन के हसीनतम रंगों में विलीन रहता था । हालांकि दुनियां का सही ज्ञान नहीं था , पर वह बेहद खूबसूरत लगती थी । धीरे-धीरे बढ़ते वक़्त के साथ संसार का बदनुमा चेहरा मुझे ताकने लगा । हर सुबह उम्मीद बनकर आती तो थी पर शाम तलक ध्वस्त हो जाती थी । जो सपने, जो अरमान मैंने वर्षों से संजोये थे , एकाएक टूट कर बिखरने लगे । केवल इसलिए कि मैं आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से सम्बद्ध था । ऐसा नहीं है कि मुझमें प्रतिभा का अभाव था ।

कभी खुद से ,कभी अपनी बेबसी से, आखिर कोई लड़े भी तो कितना ? खासकर , जब बात मुझ जैसे एक विद्यार्थी की होती है , तो मामला और संजीदा हो जाता है । अधिकांश सरकारी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो दूर कामचलाऊ ज्ञान तक नसीब होना , नसीब की बात होती है। शिक्षा की तलाश में मैं जहां भी गया, गरीबी रोड़ा बनकर मुझे रोके रहीं। मैंने हर क्षेत्र में कठिन संघर्ष झेले। सरकारें चाहे लाखों दफ़ा खुद को गरीबों का हितैशी करार दे , पर हकीकत कुछ और ही कहती है । यह कहने में कोई गुरेज़ नही कि वर्तमान परिपेक्ष में आर्थिक भेदभाव सर्वोपरि है । सच ही कहा गया है ‘ बाप बड़ा ना भैया , सबसे बड़ा रुपैया ‘ ।

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